एक शख़्स हैं करण अंशुमन। फिल्ममेकर हैं, Upperstall के मालिकों में से एक हैं और मेरे परम मित्र भी। उन्होनें कहा की मैं हिंदी में एक लेख लिख दूँ फिल्मों से संबंधित। उनकी गुज़ारिश मेरे लिए हुक्म समान थी और उनका मेरे ऊपर ये विश्वास की मैं उनकी वेबसाइट के लिए कुछ लिखने की क़ाबिलियत रखता हूँ – बस यही दो-एक कारण थे कि मैंने लिखने की कोशिश कर ही ली।
और चाहिए भी क्या था – कुछ चाय की प्यालियाँ, एक लैपटॉप, और थोड़ी सी कल्पना की उड़ान. सिगरेट मैं पीता नहीं।
वैसे तो पिछले कुछ महीनों में कई फिल्में आई हैं और उनमें से ज़्यादातर बिना कोई हलचल मचाये चली भी गई हैं। कुछ हिट हुईं और कुछ अच्छी भी थीं (दोनों एक ही फिल्म के साथ हों,ये कतई ज़रूरी नहीं है)। फिल्मों की इसी भीड़ में तीन फिल्में ऐसी रहीं जिन्होंने इन दोनों ही fronts पर अच्छे मार्क्स स्कोर किये. इन तीनों ही फिल्मों में shooting से पहले भी लिखने के काम में मेहनत की गयी होगी (script writing बड़ी rare विधा बन गयी है आजकल) और उनके रिलीज़ होने के बाद भी उन पर लिखने में आनंद आ रहा है।
ये ज़रूर ध्यान में रखिये कि मैं इन फिल्मों की विवेचना नहीं करने जा रहा हूँ, बल्कि मेरी कोशिश ये ढूंढने की है कि इनमें ऐसा नया क्या है जो proverbial तरीके से कहूँ तो – light at the end of tunnel / courage है।
बदलापुर (Badlapur)
श्रीराम राघवन एक ऐसा नाम है जो respect और awe generate करता है, चाहे वो किसी भी context में लिया जाये। उन्होनें Johnny Gaddaar में noir का presentation जिस तरह से किया, मेरी नज़र में तो बड़ा delicious था। नील नितिन मुकेश कभी भी किसी और फिल्म में उस परफॉरमेंस के क़रीब नहीं पहुंचे जिससे उन्होनें अपना शानदार debut किया। ये राघवन साहब के skills पर मोहर है। Agent Vinod में वो चूके ज़रूर पर यही सैफ अली खान उनकी एक और फिल्म में बड़े नए अवतार में दिखे थे – Ek Hasina Thi में।
और फिर आई Badlapur.
इसमें ऐसा नया क्या है? – बदले की कहानी ही तो है (‘बदला’ फिल्म के टाइटल में भी है): एक हीरो है, एक विलेन है, मारामारी है और फिल्म देखते समय हमारी हीरो के लिए root करने की इच्छा है। ऐसा तो अमिताभ बच्चन की लगभग उन सभी फिल्मों में था जिनमें वो कॉमेडी या रोमांस नहीं कर रहे होते थे।
इसमें नया है राघवन का courage.
उनका हीरो वरुण धवन chocolate image वाला hero है। उसकी daadhi बढ़ा दी, brooding बना दिया तो उसका आधा fan-base तो गया – teenage girls. उनका विलेन (anti-hero कह लीजिये, वैसे भी फिल्म देखने के बाद ये definition और blur हो जाती है) गब्बर वाले अमजद ख़ान और मोगाम्बो वाले अमरीश पुरी जैसी शख़्सियत का मालिक भी नहीं है। वो नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी है। कोई बहुत बड़ी स्टार हीरोइन नहीं है। और हाँ फिल्म में lip sync में गाने भी नहीं हैं।
Disaster Recipe है जनाब।
रिलीज़ के बाद हँस रहे हैं राघवन। पिक्चर हिट है।
वरुण धवन इस role को शिद्दत से निभाते हैं, टाइपकास्ट इमेज से अलहदा। And he emerges a winner. लड़कियों में fan-base कम नहीं हुआ है उनका बल्कि बाकियों में बढ़ गया है. लोग स्वीकारते हैं नयापन। Personality रोबदार न हो विलेन की तो भी डर / नफ़रत / घृणा सब हो सकते हैं – अग़रचे वो कोई नवाज़ के जैसा हो। बरसों के संघर्ष का स्क्रीन पे translation, उनकी आवाज़ का कंपन, आँखों में इतना anger जैसे spring दबा हो और कभी भी उछल के आपके मुँह पे लगेगा। मज़ा आया वरुण और नवाज़ की रस्साकशी में।
तो राघवन ने कुछ ख़ास नहीं किया। बड़े tried and tested formula को ही यूज़ किया – एक अच्छी script (थोड़े लूपहोल्स ज़रूर हैं पर क्षम्य हैं), सॉलिड characterization, ज़बरदस्त performance का extraction और writer /director का pure unadulterated conviction.
लीक से हटकर चले। ये नहीं सोचा कि लोग नहीं देखेंगे बल्कि लोग देखेंगे अगर अच्छा होगा तो – ये माना। अच्छी फिल्में बनानी हैं तो एप्रोच में बदला(पुर)व की कोशिश करनी होगी।
Courage शायद इसी को कहते हैं। देखने वाले रेडी हैं। क्या बनाने वाले हैं?
दम लगा के हईशा (Dum Laga Ke Haisha)
ये फिल्म मैं बड़ी उम्मीद से देखने गया था। इसके साथ वो जुड़ी थी जिसे सोशल मीडिया के ज़माने में positive buzz कहते हैं। एक और कारण भी था। इस फिल्म के Chief AD हैं – अब्बास रज़ा ख़ान। मेरे दोस्त हैं और बड़े क़माल के आदमी हैं। वो फिल्में तभी हाथ में लेते हैं जब उन्हें स्क्रिप्ट अच्छी लगे। पैसा हमेशा secondary होता है। तो उनका इस फिल्म पैर होना भी एक तरह से validation था की ये फिल्म अच्छी होनी चाहिए। और निराश नहीं होना पड़ा मुझे। मज़ा आया। शायद इसलिए कि कुछ नया हुआ। वरना प्रोजेक्ट (आजकल फिल्मों को प्रोजेक्ट कहते हैं जैसे कोई ठेकेदार पनवेल में घर बनाकर बेचने के बिज़नेस को प्रोजेक्ट कहता है वैसे) तो खतरों से भरा हुआ था ये। Director के लिए भी और Producer के लिए भी।
क्या क्या खतरे थे जब ये फिल्म काग़ज़ पे रही होगी scenes, characters और dialogues में छिपी हुई और जब बन रही होगी तो भी?
आयुष्मान खुराना जिनको हमने हमेशा मॉडर्न urban male के रोल में ही देखा है तबसे जब वो टीवी पर दिखते थे और जब RJ थे। फिर फिल्मों में भी उनका सफ़र ऐसे ही रोल्स का रहा – Vicky Donor, Nautanki Saala, Bewakoofiyan (मैं Hawaizada को गिन नहीं रहा हूँ क्योंकि दुर्भाग्यवश उसे बहुत लोगों ने नहीं देखा). उनको ऐसे रोल में कास्ट करना जो बड़ी area-specific हिंदी बोलता है, कहीं से मॉडर्न नहीं dikhta – न पहनावे से और न ही सोच से, काफी सारे सीन्स में पायजामा पहनता है और उसका बाप उसे चप्पलों से पीटता है। और हाँ वो कुमार सानू का फैन है। कौन देखेगा ऐसे हीरो को। वास्तव में क्या इसे हीरो कहा भी जा सकता है?
हीरोइन कोई नई लड़की है जिसका नाम कोई नहीं जानता। जैसा उसका करैक्टर है, वैसे भी नई ही लेनी पड़ती। कोई established स्टार तो तैयार होती नहीं। वो bahuuuuuuuuuut मोटी लड़की है। 100 किलो से ऊपर। उसकी तो कमर भी पतली नहीं है जिसे दिखाकर आइटम नंबर बनाया जा सके। और गानों में 90s का फील है – जब नदीम-श्रवण राजा थे और गुलशन कुमार महाराजा। कौन सुनता है ऐसे गाने।
शरत कटारिया, director हैं वो इस फिल्म के, ने कहा होगा – “अरे हटाओ, कोई फ़र्क नहीं पड़ता मुझे। मैं वही फिल्म बनाऊँगा जो मुझे बनानी है। एक्सपर्ट्स अपने घर बैठें। पिक्चर तो लोगों को देखनी है और वो, contrary to popular belief, काफी समझदार हैं।“
और उन्हें कोई मिल भी गया फिल्म में पैसा लगाने के लिए। आदित्य चोपड़ा – नाम तो सुना होगा। Gunday, Bewakoofiyan, Dhoom 3 जैसी फिल्मों के बीच में एक आध ऐसी फिल्म बनाते हैं वो और हमारी उम्मीद ज़िंदा रहती है।
आयुष्मान फिल्म में एक आध जगह पर ज़रूर चूकते हैं लेकिन फिर काफी जगहों पर दिल जीत भी लेते हैं। लगता तो है कि Haridwar में कोई शख्स है जो बिना अपनी मर्ज़ी के शादी करके फँस गया है और कोई exit नहीं है. Relatable character है. छोटे छोटे सपने हैं उसके और उनके पूरा न हो पाने का दर्द है। क्या फ़र्क पड़ता है कि अपना हीरो चार गुंडों को उछल उछल कर नहीं मार पाता, क्या फ़र्क पड़ता है कि शहर की सारी लड़कियां उस पर जान नहीं देतीं, क्या फ़र्क पड़ता है की उसके पास 6 pack abs नहीं है। वो कहानी का एक हिस्सा है, और हमें कहानी पसंद है – बस हो गया काम।
भूमि पेडणेकर हीरोइन हैं इस फिल्म की। मोटी हैं, charming हैं, और talented हैं। मतलब इस रोल की सारी requirements पूरी करती हैं। क्या फ़र्क पड़ता है कि वो इस फिल्म में ‘हॉट’ नहीं लगती, क्या फ़र्क पड़ता है की उनकी स्क्रीन पे एंट्री पर सीटियां नहीं बजतीं, क्या फ़र्क पड़ता है वो Haridwar जैसे छोटे शहर में एक लड़की होकर भी अपनी खुशियों के लिए सजग हैं और हीरो से अलग होकर खुश रहना पसंद करेंगी बजाय दुखी होकर साथ रहना। वो कहानी का एक हिस्सा है, और हमें कहानी पसंद है – बस हो गया काम।
और गाने 90s के हैं पर काम करते हैं – ‘दर्द करारा’ सुनने में मज़ा आता है। कुमार सानू और साधना सरगम में कुछ तो बात है।
ये सारे निर्णय वही ले सकता है जो या तो पागल है या फिर courageous है. और जितना मैं समझता हूँ शरत कटारिया और आदित्य चोपड़ा पागल तो शर्तिया नहीं हैं।
NH१० (NH10)
ये तीसरी फिल्म है जिसके बारे में context में लिखना बनता है। इसके collections अभी आ रहे हैं इसलिए ये पिक्चर हिट हो चुकी है ये कहना तो जल्दबाज़ी होगी लेकिन signs अच्छे हैं। अनुष्का शर्मा के लिए ये फिल्म काम करती हुई लगती है – actor की हैसियत से भी और producer की हैसियत से भी।
नवदीप सिंह और सुदीप शर्मा (सुदीप मेरा बरसों पुराना दोस्त है और उसकी फिल्म का मैं वैसे भी इंतज़ार करता हूँ), ये respectively इस फिल्म के director और writer हैं, कहते हैं की एक-दो बड़ी फिल्मों (Rock The Shaadi और Kaneda – इनके बारे में फिर कभी) के लिये फाइनेंसिंग जुगाड़ते समय उन्होनें ये छोटी फिल्म बनाने की सोची। अच्छा ही हुआ। ये एक और example है कि ‘छोटी’ और unconventional filmein चलती हैं। और ये उन ‘बड़ी’ फिल्मों से कहीं बेहतर हैं जो फिल्मों के नाम पर मज़ाक ज़्यादा लगती हैं।
ये एक ऐसी फिल्म है जिसमें हीरो है ही नहीं। उसका character ही लिखा नहीं गया। Lip-sync में गाने भी नहीं हैं। हीरोइन cigarette पीती है और वो भी unapologetically. Wow! और कुछ बेहद कमाल के scenes हैं। एक सीन ख़ास तौर पर किसी भी हॉरर फिल्म के किसी भी सीन से ज़्यादा दहलाने वाला है – एक बच्चा अपनी माँ को अपनी दादी से पिटते देखकर HANSTA है, खिलखिलाकर। Spine chilling and naked portrayal of women in rural Haryana. सच में हरियाणा में एक गुडगाँव है और बाकी सब गाँव है।
इस फिल्म में violence है, deep rooted caste-system (पुलिस वाले भी तो समाज का ही एक हिस्सा हैं) है, और perversely satisfying climax है। कुछ अलहदा है और उम्दा है। बेहद शिद्दत से ज़रुरत है की ऐसी फिल्में और बनें – और मैं फिल्म के अच्छा, बुरा, या great होने की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं बात कर रहा हूँ उस courage की जो कुछ भी अलग़ करने की कोशिश के लिए चाहिए। Change is good. Orgasmic good.
शायद एक हिम्मत की सीढ़ी और तय करनी होगी। कुछ फिल्में बिना इंटरवल के बेहतर काम करती हैं और ये फिल्म शर्तिया उनमें से एक है। हाथ में पॉपकॉर्न और मुँह में समोसा हो तो डर के भागती हुई लड़की के साथ फिर से जुड़ने में थोड़ा वक़्त लगता है।
तो लब्बे-लुआब (gist) ये है कि हिम्मत जुटाइए, कुछ नया सोचिये और उसे परदे पर उतारने की uncompromised कोशिश कीजिये। picture अच्छी होगी और हिट भी। ये पब्लिक है, ये सब जानती है।
लगे रहो। मुन्नाभाई की तरह……………
ये मेरी पहली कोशिश है। अच्छी लगे तो लिख भेजिए, अच्छी न लगे तो………. भी लिख भेजिए। दोनों ही सूरतों में पढ़ने के लिए शुक्रिया।